Wednesday, March 03, 2010

Kavita

कविता एक लड़की है
जो पहली नज़र में भाती है
धीरे धीरे दिल में समाती है

Tuesday, December 01, 2009

रीतना

कितनी ही राहों को
अकेला
नापता है समय
बच्चे ,बूढ़े सभी को
संभालता है समय
समय जो काल है
काल को हम
अपने क्षय से नाप कर
उसे अपनी वृधि के शब्दों में व्यक्त करते हैं
लेकिन काल
ना तो क्षय है
ना वर्धि
वह था , है और रहेगा
ये तो हमारी समझ का फेर है
सच तो यह है
हम रीत कर ही उसे भरते हैं

Thursday, November 05, 2009

saanp

 साँप
साँप का खेल दिखाता है संपेरा 
पिटारी में बंद 
 ज़हरीले साँपों  पर ,बहुत गुमान करता है वह

यह देखिए गेहुँअन
अपनी फुंफकार छोड़ दे
तो हवाओं में ज़हर भर जाता है
आप के साथ सीधा तन
खडा होना आता है इसे
बड़ी मज़बूत हड्डी है साब
और , यह निकाला मैंने फनियल
जितना भी दूध पिलाओ
बढ़िया किस्म का ज़हर उगलता है
और भी न जाने
क्या -क्या दिखाता जा रहा था वह
पर मेरी चेतना जूझ रही थी
साँपों की किस्मों वाले आदमियों से

Tukda Tukda vakt

आज मेरा जन्मदिन है
लोग दे रहे हैं बधाइयां और उपहार
मुझे छोड़ सभी खुश हैं

इस बार मन कुछ उदास है
गणित की उलटी गिनती गिनता
कहीं बहुत पीछे चला गया है
और वक्त ,जैसे लम्बी चादर हो गया है

कई रंगों की चादर
सफेद ,चटकीली और स्याह
सफेद टुकडा
सभी रंगों में रंगने को तयार
भोला बचपन
मस्त ,खिलखिलाता ,कभी रोता ,झुंझलाता

किस सन और तारीख को छूटा बचपन
नहीं पता
न ही समझाया किसी ने और न बताया
बस बदल गया रंग कपडे का
अब वो सफेद नहीं लाल हो गया है
चटक रंग बहुत भाया
जवानी ने पूरी की पूरी चादर जैसे
बंद कर ली हो मुठी में
कसी बंद मुठी से
कब धीरे  धीरे सरकती रही चादर
याद नहीं आता

आज देखती हूँ
बहुत कम बचा है कपडा
वक्त उसकी भी
कई - कई कतरने काट
उसे और छोटा करने में लगा है

क्यों हो रहा है टुकडा टुकडा वक्त
सारा का सारा गणित झुठलाता
गुणात्मक गति से सिमट रहा है
मानो कैलंडर उसे
छोटा करने में
जी - जान से लगा है

Saturday, October 24, 2009

nakaab

नकाब

तुम्हें  पाने के लिए
मैंने नकाब उतार दी
और
पलक झपकते ही
तुमने उसे ओढ़ लिया

Wednesday, October 21, 2009

santulan

संतुलन 

ससुराल की दहलीज पर
कल जहाँ मेरे पिता ने कदम रखा था
वहां आज तुम खड़े हो
वहीँ आ कर खडा हो जाय गा तुम्हारा दामाद
सोचती हूँ क्या फर्क पड़ता है
पीढीयों के बदल जाने से

पिता की ऐंठन  जली रस्सी सी पड़ी है
तुम्हारे सामने
और तुम
आत्म विश्वास  के पिरामिड से
सीधे तने खड़े हो
मेरे सामने

विरासत में पाए इन गुणों को और अधिक मांज कर
जब खडा हो जाए गा
तुम्हरा दामाद हमारे सामने
तब
संतुलन का व्यर्थ प्रयास करती
तराजू के कांटे  सी
झुकती रहूँगी  मैं
कभी इधर कभी उधर

Tuesday, October 20, 2009

Beta

बेटा 

कोख का सुख
लो़क का सुख
परलोक का संभावित सुख
सभी कुछ पाया
जब बेटा जना मैंने

आशीषों की वर्षा से भीग उठी मैं
बेटा पा जी उठी मैं

बढता रहा समय
बदलते गए कलेंडर
और
आज जब बाप का जूता पहना है उसने
खुश होने का जगह
सहम गयी हूँ मैं उसका बदलाव देख कर

किस ने छीन ली है मुझसे उसकी  छुअन
क्या समय ने ?
ए़क सवाल पूछती हूँ आप से
बेटा बड़ा हो कर आदमी क्यों बन जाता है ?

Saturday, October 17, 2009

 कविता                                                                                                                                                               कविता एक लड़की है
जो पहली नज़र में भाती है
धीरे धीरे मन पर
छा जाती है